पुरुष शरीर में स्त्री तत्व की प्रधानता से होती है क्रांति

कहते हैं कि जब एक स्त्री प्रेम में पड़ती है तो वह संपूर्ण समर्पण कर देती है। प्रेम में गहरे डूबना केवल एक स्त्री से संभव है। इस दौरान स्त्री चित्त की अवस्था में वात्सल्य, ममत्व, समर्पण, क्षमा और धैर्य जैसे गुणों का प्राधान्य हो जाता है। लेकिन ये बात ख्याल में ज़रूर ले लेनी चाहिए कि प्रेम का ऐसा विस्तार, जो अहंकार शून्य हो, उसका “स्त्री शरीर” से कोई खास संबंध नहीं है बल्कि ये विशिष्ट प्रकार का गुण है, जो कि “स्त्रैणत्व” के नाम से जाना जाता है।

ये विशेषता शरीर के प्रकार यानि जेंडर से कोई रिश्ता नहीं रखती है वरन् इसका संबंध पुरुष के शरीर में मौज़ूद स्त्री तत्व की प्रधानता से या फिर स्त्री शरीर में उपस्थित स्त्री तत्व की प्रमुखता से है। शरीर निरपेक्ष ऐसी अवस्था ‘वय’ से भी संबंध नहीं रखती है। यानि शिशुत्व, कैशोर्यता, युवावस्था हो या फिर जरावस्था-वृद्धावस्था ही क्यों न हो, स्त्रैणत्व का बाहुल्य हो सकता है और उससे संबंधित व्यक्ति के भीतर आनुपातिक मात्रा में ऐसा व्यवहार परिलक्षित होगा ही।   

ख्याल रहे स्त्री-पुरुष की सामाजिक भूमिका या परिभाषा से बिल्कुल अलग है “स्त्रैणत्व”। ये एक प्रकार की पूर्णता है, संतुष्टि का बोध है, त्याग का एहसास है, सर्वस्व समर्पण के बावज़ूद बहुत कुछ न दे पाने का भाव है, छीनने वालों पर भी कृपा का भाव है, देवत्व से भी उच्च अवस्था है। लेकिन ये सबसे अधिक भ्रमित करने वाला शब्द भी बना हुआ है क्योंकि शरीर की सीमाओं से अधिक नहीं जानने वालों ने इसे मात्र स्त्री शरीर तक सीमित कर दिया।

हां, इतना अवश्य है कि आनुपातिक रूप में स्त्रैणत्व का भाव ज़्यादातर स्त्री शरीर में जन्म लेता है। किंतु जब यही भाव किसी पुरुष में जन्मता है तो वह कृष्ण बन जाता, ईसा बन जाता है, बुद्ध या फिर महावीर बन जाता है। पुरुष शरीर में उत्पन्न स्त्रैणत्व उस पुरुष से क्रांति करवा देता है, ये एक एनलाइटेनमेंट को जन्म देता है, बुद्धत्व की सहज प्राप्ति करवाता है।