क्यों लिया था शिव ने ‘भैरव’ अवतार?

हिन्दू धर्म में देवी-देवताओं के विभिन्न अवतारों का जिक्र किया गया है, जिनमें से ज्यादातर अवतार भगवान विष्णु और शक्ति के रहे हैं। वैसे भगवान शिव के भी विभिन्न अवतारों का उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है। आज हम आपको भोलेनाथ के भीषण अवतार, भैरव से अवगत करवाएंगे जिन्हें उनके भक्त अपना रक्षक मानते हैं।



भैरव या भैरो को तांत्रिक और योगियों का इष्ट देव कहते हैं। तंत्र साधक विभिन्न प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करने के लिए भैरो की उपासना करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भैरव, छाया ग्रह राहु के देवता हैं। इसलिए वे लोग जो राहु से मनोवांछित लाभ पाने के इच्छुक होते हैं वे भैरो की उपासना कर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। पौराणिक धार्मिक दस्तावेजों में भैरो को देवी महाविद्या, जिन्हें भैरवी कहा जाता है, के साथ जोड़ा गया है। भैरवी अपने अनुयायियों की शुद्धि करती है, जिससे व्यक्ति के चरित्र, उसके विचार, शरीर, व्यक्तित्व आदि को शुद्धता मिलती है। शिव महापुराण में वर्णित ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के बीच हुए संवाद में भैरव की उत्पत्ति से जुड़ा उल्लेख मिलता है। एक बार भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी से पूछा कि इस ब्रह्माण्ड का श्रेष्ठतम रचनाकर कौन है? इस सवाल के जवाब में ब्रह्माजी ने स्वयं को सबसे श्रेष्ठ बताया। ब्रह्माजी का उत्तर सुनने के बाद भगवान विष्णु उनके शब्दों में समाहित अहंकार और अति आत्मविश्वास से क्रोधित हो गए और दोनों मिलकर चारों वेदों के पास अपने सवाल का जवाब हासिल करने के लिए गए। सबसे पहले वे ऋग्वेद के पास पहुंचे। ऋग्वेद ने जब उनका जवाब सुना तो कहा “शिव ही सबसे श्रेष्ठ हैं, वो सर्वशक्तिमान हैं और सभी जीव-जंतु उन्हीं में समाहित हैं”। जब ये सवाल यजुर्वेद से पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया “यज्ञों के द्वारा हम जिसे पूजते हैं, वही सबसे श्रेष्ठ है और वो शिव के अलावा और कोई नहीं हो सकता”।  सामवेद ने उत्तर दिया “विभिन्न साधक और योगी जिसकी आराधना करते हैं वही सबसे श्रेष्ठ है और जो इस पूरे विश्व को नियंत्रित करता है, वो त्र्यंबकम यानि शिव है”। अथर्ववेद ने कहा “भक्ति मार्ग पर चलकर जिसे पाया जा सकता है, जो इंसानी जीवन को पाप मुक्त करता है, मनुष्य की सारी चिंताएं हरता है, वह शंकर ही सबसे श्रेष्ठ है”। चारों वेदों के उत्तर सुनने के बाद भी भगवान विष्णु और ब्रह्माजी का अहंकार शांत नहीं हुआ और वे उनके जवाबों पर जोर-जोर से हंसने लगे। इतने में ही वहां दिव्य प्रकाश के रूप में महादेव आ पहुंचे। शिव को देखकर ब्रह्मा का पांचवां सिर क्रोध की अग्नि में जलने लगा। उसी वक्त भगवान शिव ने अपने अवतार की रचना की और उसे ‘काल’ नाम देकर कहा कि ये काल यानि मृत्यु का राजा है। वह काल या मृत्यु का राजा कोई और नहीं शिव का अवतार भैरव था। ब्रह्मा के क्रोध से जलते सिर को भैरव ने उनके धड़ से अलग कर दिया। इस पर भगवान शिव ने भैरव से सभी तीर्थ स्थानों पर जाने के लिए कहा ताकि उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिल सके। ब्रह्मा का कटा सिर अपने हाथ में लेकर भैरव विभिन्न तीर्थ स्थानों में गए, पवित्र नदियों में स्नान किया ताकि उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिल सके। परंतु उन्होंने देखा कि ब्रह्म हत्या का पाप हर जगह उनका पीछा कर रहा है। लेकिन जैसे ही भैरव काशी पहुंचे, वैसे ही उनका पाप मिट गया। भैरव के हाथ से ब्रह्मा का सिर गिर गया। काशी में जिस स्थान पर ब्रह्मा का कटा सिर गिरा था उसे कपाल मोचन तीर्थ कहा जाता है। उस दिन से लेकर अब तक काल भैरव स्थायी रूप से काशी में ही निवास करते हैं। ऐसा माना जाता है जो भी व्यक्ति काशी यात्रा के लिए जाता है या वहां रहता है उसे कपाल मोचन तीर्थ अवश्य जाना चाहिए। भैरव की उत्पत्ति से जुड़ी एक अन्य कथा मौजूद है, जिसका संबंध शिव और शक्ति से है। राजा दक्ष की पुत्री शक्ति मन ही मन शिव को अपना पति स्वीकार कर चुकी थीं। लेकिन उनके पिता किसी भी रूप में शिव के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए राजी नहीं थे। परंतु शक्ति ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर शिव से विवाह किया, जिससे राजा दक्ष अत्यंत क्रोधित हो उठे। शिव का अपमान करने के उद्देश्य से राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उसमें शिव और शक्ति को आमंत्रित नहीं किया। बिना निमंत्रण के शक्ति यज्ञ में पहुंची जहां राजा दक्ष ने शिव का अपमान किया। इस अपमान से शक्ति बहुत क्रोधित हुईं और उन्होंने यज्ञ की अग्नि में कूदकर अपनी जान दे दी। शक्ति के मृत शरीर को देखकर भगवान शिव क्रोध की अग्नि में जल उठे और इसी आवेग में उन्होंने दक्ष का सिर काट डाला। भगवान शिव, शक्ति के शव को अपने कांधे पर डालकर पूरे ब्रहमाण्ड का चक्कर लगाने लगे। निराशा और क्रोध के बीच वह अनियंत्रित हो उठे थे। ऐसे में भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शक्ति के शव को टुकड़ों में विभाजित कर दिया। जहां-जहां शक्ति के धड़ के टुकड़े गिरे, वे शक्तिपीठ बन गए। कहा जाता है आज भी भगवान शिव, भैरव के अवतार में उन शक्तिपीठों की रक्षा करते हैं। अपने शत्रु पर विजय पाने, भौतिक सुख-सुविधाएं हासिल करने और हर क्षेत्र में सफलता पाने की कामना करने वाले लोग भैरव की उपासना करते हैं। ऐसा माना जाता है भैरव को प्रसन्न करना बहुत आसान है, वह अपने भक्तों की आराधना से बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते हैं। नारियल, काले तिल, फूल, सिंदूर सरसो का तेल भैरव पर अर्पण करना शुभ माना जाता है। काल भैरव की 8 परिक्रमा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में किए गए सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसके अलावा जो व्यक्ति लगातार 6 महीने तक काल भैरव की उपासना करता है वह विभिन्न सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। मार्गशीर्ष माह की अष्टमी पर काल भैरव की उपासना फलदायी मानी जाती है, इसके अलावा रविवार, मंगलवार, अष्टमी और चतुर्दशी को भी भैरव की आराधना करने का प्रावधान है।

ऊँ शब्द त्रिदेव का प्रतीक है।


ऊँ शब्द त्रिदेव का प्रतीक है। अ उ म इन तीनों अक्षरों में अ से अज यानी ब्रह्मा जो ब्रांह्माण्ड के निर्माता हैं सृष्टि निर्माण का कार्य जिनके पास है, उ से उनन्द यानीविष्णु जी जो ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता है और सृष्टि को पालने का कार्य करते हैं म से महेश यानी भगवान शिव जो ब्रह्माण्ड में बदलाव के लिए पुराने को नया बनाने के लिए विघटन का कार्य करते है।एक अक्षर का मंत्र है ऊँ जिसमें सम्पूर्ण ब्राह्मांड की शक्तियां समाई हैं। किसी भी मंत्र के आरंभ में ऊँ लगा दिया जाए तो वह शक्ति संपन्न हो जाता है और उसकीशक्तियों में बढ़ौतरी हो जाती है। ऊँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। ऊँ शब्द का जाप मिटाएगा आपके जीवन से संताप ऊँ मंत्र जाप से शरीर में नव चेतना का संचार होता है।जहां इस मंत्र का जाप होता है वहां नकारात्मकता का अंत हो सकारात्मकता का आरंभ होता है। ब्लड प्रेशर एवं हृदय संबधी रोगों से निजात मिलता है। सूर्योदय या सूर्यास्त के समय पीले वस्त्र पहनकर पीले आसन पर समाधि लगाकर पीले रंग के ऊँ का ध्यान करने से जीवन में आने वाले संकटों से निजात मिलता है। असाध्य रोगों पर विजय प्राप्त करने के लिए ऊँ महामंत्र का जाप करें।रोगी इस जाप को लेटे हुए भी कर सकता है। गृह क्लेश को दूर करने के लिए शनिवार को पीपल पेड़ की छाया में बैठकर, सफेद रंग के ऊँ का ध्यान एवं जाप करें।"ऊँ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च।गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव: कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।"

पुरुष शरीर में स्त्री तत्व की प्रधानता से होती है क्रांति

कहते हैं कि जब एक स्त्री प्रेम में पड़ती है तो वह संपूर्ण समर्पण कर देती है। प्रेम में गहरे डूबना केवल एक स्त्री से संभव है। इस दौरान स्त्री चित्त की अवस्था में वात्सल्य, ममत्व, समर्पण, क्षमा और धैर्य जैसे गुणों का प्राधान्य हो जाता है। लेकिन ये बात ख्याल में ज़रूर ले लेनी चाहिए कि प्रेम का ऐसा विस्तार, जो अहंकार शून्य हो, उसका “स्त्री शरीर” से कोई खास संबंध नहीं है बल्कि ये विशिष्ट प्रकार का गुण है, जो कि “स्त्रैणत्व” के नाम से जाना जाता है।

ये विशेषता शरीर के प्रकार यानि जेंडर से कोई रिश्ता नहीं रखती है वरन् इसका संबंध पुरुष के शरीर में मौज़ूद स्त्री तत्व की प्रधानता से या फिर स्त्री शरीर में उपस्थित स्त्री तत्व की प्रमुखता से है। शरीर निरपेक्ष ऐसी अवस्था ‘वय’ से भी संबंध नहीं रखती है। यानि शिशुत्व, कैशोर्यता, युवावस्था हो या फिर जरावस्था-वृद्धावस्था ही क्यों न हो, स्त्रैणत्व का बाहुल्य हो सकता है और उससे संबंधित व्यक्ति के भीतर आनुपातिक मात्रा में ऐसा व्यवहार परिलक्षित होगा ही।   

ख्याल रहे स्त्री-पुरुष की सामाजिक भूमिका या परिभाषा से बिल्कुल अलग है “स्त्रैणत्व”। ये एक प्रकार की पूर्णता है, संतुष्टि का बोध है, त्याग का एहसास है, सर्वस्व समर्पण के बावज़ूद बहुत कुछ न दे पाने का भाव है, छीनने वालों पर भी कृपा का भाव है, देवत्व से भी उच्च अवस्था है। लेकिन ये सबसे अधिक भ्रमित करने वाला शब्द भी बना हुआ है क्योंकि शरीर की सीमाओं से अधिक नहीं जानने वालों ने इसे मात्र स्त्री शरीर तक सीमित कर दिया।

हां, इतना अवश्य है कि आनुपातिक रूप में स्त्रैणत्व का भाव ज़्यादातर स्त्री शरीर में जन्म लेता है। किंतु जब यही भाव किसी पुरुष में जन्मता है तो वह कृष्ण बन जाता, ईसा बन जाता है, बुद्ध या फिर महावीर बन जाता है। पुरुष शरीर में उत्पन्न स्त्रैणत्व उस पुरुष से क्रांति करवा देता है, ये एक एनलाइटेनमेंट को जन्म देता है, बुद्धत्व की सहज प्राप्ति करवाता है।     

For the Good of All

As Arjuna surveyed the Kaurava forces arrayed on the battlefield of Kurukshetra he was suddenly gripped by nervousness, anxiety, fear, grief and misplaced pity. He started doubting the very purpose of the war and became apprehensive about its result. Totally confused about his identity and duties he finally surrendered to Bhagavan and sought His guidance. He asked to know what was good (shreyas) for him.

Arjuna's state of mind was not peculiar to Arjuna alone. This is a universal problem. Pujya Gurudev Swami Chinmayananda called it as the ‘Arjuna disease’.  Even today many people suffer from the syndrome. The only remedy for it is knowledge from the highest standpoint – Self-knowledge which reveals our true, absolute identity. Once we have understood our absolute identity then we also understand our duties in this world.

Identity and duty go together.  Our duty in life is determined by our identity – who we are. A teacher’s duty is to teach and student’s duty is to study. When we are confused about our identity we are confused about our duties also.  Bhagavan gave Arjuna the knowledge of his spiritual identity, the absolute identity and also indicated his duties and gave directions on how to perform them. Bhagavan unequivocally stated that the performance of duties with the right attitude, purifies the mind and prepares it for higher knowledge about the true Self. Having realised once this true identity, the seeker abides in the Knowledge and is never confused or deluded again.  

The path of karma-yoga is the path of action, which leads to perfection.  ‘The road to perfection is always under construction.' It is a continuous process. Arjuna misunderstood the teaching. He thought that Bhagavan was speaking of two alternative paths - the path of action - karma yoga or the path of knowledge - jnana yoga. And that the latter was the superior of the two. Since Bhagavan had praised the path of knowledge he could not understand why He was being asked to follow the path of action and perform his duties which involved warfare and killing. Faced by a moral dilemma Arjuna said, ‘I surrendered to you but instead of removing my delusion you are adding to my confusion. Tell me that one thing which I should do by which I may attain shreyas.’

Shreyas, that which is good. This is to be understood at two levels - good at the individual level and good at the universal level - absolute good which is good for all irrespective of time, place, and circumstance.

Shreyas translates differently at various levels. For a diabetic sugar is not good but the same sugar is prescribed for another with low sugar levels.  So sugar may be good or bad depending on the health of the person concerned. However, good health is good for all and desired by all.  At the physical level, good health is shreyas for everybody. At the mental level shreyas is peace of mind. It is desired by all and good for all. Shreyas at the intellectual level is clarity of thought, which Arjuna lacked. In life we find that confusions are a very common occurrence – students are confused about the subjects they should opt for, the youth lack clarity about their career options, whether they should get married or not.  At the spiritual level, happiness is desired and is good for all.  When you are content with yourself and your happiness is independent of any external factor that is shreyas. Being at ease in every situation regardless of place, time, people, is called shreyas. Good health, peace of mind, clarity of thought, and happiness are shreyas at the universal level.

WhatsApp Helps People Cheat on Their Spouses

Cheaters usually get caught and the mobile messaging service WhatsApp can help or hurt those dirty little cheaters. WhatsApp has taken a scandalous turn to aiding in infidelity, particularly in Italy. A new report was released Monday by the Italian Association of Matrimonial Lawyers citing that 40% of divorce cases in Italy have used WhatsApp as evidence of infidelity. You’d think these people would just delete the messages right away or use Snapchat instead. (Which is probably a better way to message a mistress or mister since the messages disappear immediately after you open them. Just sayin’.) WhatsApp helping push up divorce rates shows how mobile can influence our communication and relationships.
The appeal of WhatsApp is it uses 3G or WiFi instead of SMS texting. So, if you’re into being sneaky and slutty with someone besides your significant other, the phone number you’re messaging won’t show up on the monthly phone bill. As Gian Ettore Gassani, president of the association explained to The Times, “Lovers can now exchange risqué photos of themselves, and we have seen adulterers using the service to maintain three or four relationships – it’s like dynamite.” Seriously, why are these people even married?
WhatsApp’s recently updated features tells users when their message has been sent, received and read with a timestamp. Which is great if you’re obsessed with knowing when someone has read your message. It’s also great for having it be used as evidence against you in a court case. “My message to adulterers is, ‘Be prudent’, since if it makes betrayal easier WhatsApp also makes it easier to be caught,” Gassani told The Times. “Spouses often become suspicious when they hear the beep of an incoming message.” That is quite the paradox advising cheaters to be prudes.

ये हैं वो 6 शाप जिनके कारण हुई थी रावण की मृत्यु

ये हैं वो 6 शाप जिनके कारण हुई थी रावण की मृत्यु



एक बार रावण भगवान शिव के दर्शन के लिए कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को शाप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। वासना पूर्ति की इच्छा से रावण ने उसे पकड़ लिया। तब रंभा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं। लेकिन रावण नहीं माना और उसने रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को शाप दिया कि 'अगर किसी स्त्री की इच्छा के बिना वह उसको स्पर्श करेगा तो मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।'भगवान राम के वंश 'रघुवंश' में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई, लेकिन मरने से पहले उन्होंने रावण को शाप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा।रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों उलझा लिया। इस बात का पता शंभर को चला तो उसने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासनायुक्त मेरा सतीत्व भंग करने का प्रयास किया इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई। इसलिए तुम भी स्त्री की वासना के कारण मारे जाओगे।एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, वह स्त्री भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को शाप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को शाप दिया कि 'मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।'

सात फेरों का वैज्ञानिक रहस्य

यदि आप विवाहित हैं तो आपको इन शब्दों का ज्ञान पहले से होगा। भारतीय विवाह प्रणाली में सात फेरों का अधिक महत्व है। आओ जानें ऐसा क्या है इन सात फेरों में--क्या कोई वैज्ञानिक रहस्य भी छुपा है।  क्या आपने ये देखा है कि जब तक सात फेरे पूरे नहीं हो जाते, तब तक विवाह संस्कार पूरा हुआ नहीं माना जाता। न एक फेरा कम, न एक फेरा अधिक। वैसे इन दिनों कुछ विवाह संस्कार आयोजनों में चार या पांच फेरों में ही काम चला लिया जाता है, लेकिन जानकारों के अनुसार इस तरह के संस्कार सुखद नहीं होते। असल उद्देश्य वरवधू को चेतना के हर स्तर पर एकरस और सामंजस्य से संपन्न कर देना है। चेतना के सात स्तरों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सात की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत विशिष्ट है। योग की दृष्टि से शरीर में ऊर्जा (पार्थिव) और शक्ति (आध्यात्मिकता) के सात केंद्र हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है यज्ञ और संस्कार के वातावरण और विशिष्ट जनों की उपस्थिति में सात कदम एक साथ सातवें पद या परिक्रमा में वर, कन्या एक दूसरे से कहते है हम दोनों अब परस्पर सखा बन गए हैं। शरीर के निचले भाग से शुरु हो कर ऊपर की ओर बढने पर इनकी स्थिति इस प्रकार मानी गई है मूलाधार, (शरीर के प्रारंभिक बिंदु पर) स्वाधिष्ठान, ( गुदास्थान से कुछ ऊपर) मणिपुर, (नाभिकेंद्र) अनाहत, (हृदय) विशुद्ध, (कंठ) आज्ञा (ललाट, दोनों नेत्रों के मध्य में) और सहस्रार(शीर्ष भाग में जहां शिखा केंद्र) है। चक्र शरीर के केन्द्र हैं। उन्ही की तरह शरीर के भी सात स्तर माने गए हैं। इनके नाम इस तरह हैं स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, मानस शरीर, आत्मिक शरीर, दिव्य शरीर और ब्रह्म शरीर। विवाह की सप्तपदी में उन शक्ति केंद्रों और अस्तित्व की परतों या शरीर के गहनतम रूपों तक तादात्म्य बिठाने करने का विधान रचा जाता है, केवल शिक्षा नहीं, व्यावहारिक विज्ञान के रूप में। इस तथ्य को समझाने के लिए ही सप्तपदी या सात वचनों को संगीत के सात सुर, इंद्रधनुष के सात रंग, सात तल, सात समुन्द्र, सात ऋषि, सातों लोकों आदि का उल्लेख किया जाता है। असल बात शरीर, मन और आत्मा के स्तर पर एक्य स्था स्थापित करना है जिसे जन्म जन्मान्तर का साथ कहा जा सके। भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का एक चलन है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं। विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है। (यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

 किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।  (कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

 यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है--गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।  (तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)  (कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)

 इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।  (इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

 यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है। (कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

 वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले। (अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

 विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।  हमें बतायें आप इस बारे में क्या कहते हैं। क्या आपको लगता है कि विवाह संस्कार में सात फेरों का महत्व है या आप इन्हे केवल औपचारिक्ता ही मानते हैं।